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अंधविश्वास की कीमत: एक जिंदगी की बलि

 अंधविश्वास की कीमत: एक जिंदगी की बलि

नवादा। नवादा के हिसुआ थाना क्षेत्र के पांचू गढ़ मुसहरी गांव एक बार फिर हमें यह आईना दिखाता है कि ग्रामीण भारत के कई हिस्सों में आज भी अंधविश्वास और भीड़तंत्र इंसानियत से ज्यादा ताकतवर है। साउंड सिस्टम खराब हुआ, तकनीकी गड़बड़ी थी – लेकिन भीड़ ने अपनी सोच को दिमाग से नहीं, अंधविश्वास से चलाया। और नतीजा यह हुआ कि 70 वर्षीय बुजुर्ग की जान चली गई, जबकि उसकी पत्नी अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ रही है।

समस्या की जड़ क्या है?

अज्ञानता और शिक्षा की कमी: ग्रामीण समाज में आज भी विज्ञान और तार्किकता की समझ कमजोर है। लोग प्राकृतिक घटनाओं या तकनीकी दिक्कतों को अलौकिक शक्तियों से जोड़ लेते हैं।

भीड़तंत्र की मानसिकता: जब लोग एकसाथ होते हैं, तो उनका विवेक सबसे पहले खत्म हो जाता है। इस “भीड़ मनोविज्ञान” में सही-गलत का फर्क बेमानी हो जाता है।

सामाजिक ढांचा और भय: "डायन" बताकर किसी पर आरोप लगाना, अक्सर कमजोर वर्गों, महिलाओं, दलितों और गरीबों को परेशान करने का हथियार बन चुका है।

सिर्फ क़ानून काफी नहीं

डायन प्रथा और माब लिंचिंग के खिलाफ कानून मौजूद हैं। बिहार ने डायन प्रथा उन्मूलन अधिनियम भी लागू किया है। लेकिन कानून किताबों में है, ज़मीन पर असर बहुत कम है।

जब तक लोगों की सोच नहीं बदली जाती, तब तक ऐसी घटनाएँ बार-बार दोहराई जाएंगी।

हमें क्या करना होगा?

 1. शिक्षा और जागरूकता अभियान – स्कूल, पंचायत और समाज के हर वर्ग में नियमित चर्चा ज़रूरी है।

2. सामाजिक संगठनों की भूमिका – महिलाओं, गरीबों और दलित समुदाय को जागरूक करने के लिए अभियान चलाने होंगे।

3. मीडिया और प्रशासन की जिम्मेदारी – केवल रिपोर्टिंग या गिरफ्तारी नहीं, बल्कि लगातार जागरूकता फैलाना प्रशासन और मीडिया का कर्तव्य होना चाहिए।

4. सख्त सजा का उदाहरण – इस घटना में दोषियों को शीघ्र न्यायिक प्रक्रिया से दंडित किया जाना चाहिए, ताकि भविष्य में इससे सबक लिया जा सके।

नवादा की यह घटना केवल एक अपराध नहीं, बल्कि हमारे समाज के भीतर जड़ जमाए अंधविश्वास का चेहरा है। सवाल यह है कि 21वीं सदी के भारत में हम कब तक ऐसी बर्बर सोच से अपने लोगों की जान गँवाते रहेंगे?

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