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चार युगों में देवता और दानव के मध्य स्पष्ट अंतर का कारण

 चार युगों में देवता और दानव के मध्य स्पष्ट अंतर का कारण

लेखक: राकेश कुमार

सनातन धर्म के अनुसार सृष्टि की व्यवस्था चार युगों – सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग – में विभाजित है। इन युगों की सबसे बड़ी विशेषता है कि जैसे-जैसे युग बदलते हैं, वैसे-वैसे धर्म का स्तर घटता है और पाप का प्रभाव बढ़ता है। यही नहीं, देवता और दानव – जो दो विपरीत शक्तियों के प्रतीक हैं – उनका स्थान, स्वभाव और पारस्परिक संबंध भी बदलते जाते हैं। इस लेख में हम समझेंगे कि कैसे चारों युगों में देवता और दानव के स्थान और स्वभाव में परिवर्तन हुआ, और आज के कलियुग में ये कैसे एक ही शरीर में आकर स्थापित हो गए हैं।

1. सतयुग: जब देवता और दानव अलग-अलग रहते थे

विशेषता:

सतयुग को सत्य का युग कहा जाता है। यह युग धर्म, सत्य, तप और ब्रह्मचर्य का प्रतीक था। इस युग में मनुष्य का चरित्र अत्यंत शुद्ध और सात्त्विक होता था। मनुष्य सीधे भगवान से संवाद कर सकता था।

देवता और दानव का भौगोलिक भेद:

इस युग में देवता और दानव स्पष्ट रूप से अलग लोकों में रहते थे।

देवता रहते थे स्वर्गलोक में – जहां इन्द्र, वरुण, यम, अग्नि जैसे देवताओं का वास था।

दानव और असुर रहते थे पाताललोक या असुर लोक में।

इन दोनों में सीधा टकराव नहीं होता था क्योंकि दोनों का अपना-अपना कार्यक्षेत्र और क्षेत्राधिकार था। जब असुरों का अहंकार बढ़ता, तब देवताओं के कहने पर भगवान विष्णु कोई अवतार लेकर उनका संहार करते।

उदाहरण:

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु – दोनों असुरों को भगवान विष्णु ने वराह और नरसिंह अवतार लेकर मारा।

प्रह्लाद, यद्यपि दानव कुल में जन्मा था, परंतु सात्त्विक था – वह एक अपवाद था।

निष्कर्ष:

इस युग में अच्छाई और बुराई स्पष्ट रूप से अलग-अलग थी। धर्म और अधर्म की पहचान आसान थी।

2. त्रेतायुग: जब देवता और दानव एक ही लोक में रहने लगे

विशेषता:

त्रेतायुग में सतयुग की तुलना में धर्म घटा और पाप थोड़ा बढ़ा। यहाँ सत्य केवल तीन-चौथाई (¾) रह गया।

देवता और दानव अब एक ही भूमि पर:

इस युग में देवता और दानव अलग लोकों में नहीं, बल्कि एक ही भूमि (धरती) पर रहने लगे थे। यद्यपि वे विरोधी शक्तियाँ थे, फिर भी दोनों के पास अपने-अपने राज्य थे।

उदाहरण:

श्रीराम (अवतार) अयोध्या के राजा थे – जो धर्म और मर्यादा के प्रतीक थे।

रावण लंका का राजा था – जो विद्वान होते हुए भी अहंकारी और अधर्मी था।

यहां देवता और दानव का संघर्ष केवल युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि नीति, विचार और कर्तव्य के स्तर पर भी था।

निष्कर्ष:

इस युग में अच्छाई और बुराई साथ-साथ रहते थे, लेकिन फिर भी उनकी सीमा स्पष्ट थी। रावण को सब जानते थे कि वह अधर्मी है, जबकि राम मर्यादा पुरुषोत्तम माने जाते थे

3. द्वापर युग: जब देवता और दानव एक ही परिवार में रहने लगे

विशेषता:

इस युग में धर्म केवल आधा (½) रह गया था। पाप का प्रभाव और स्वार्थ की भावना बढ़ गई थी।

देवता और दानव अब रिश्तेदार बन गए:

अब अच्छाई और बुराई की रेखा और धुंधली हो गई थी। एक ही कुल, एक ही वंश और एक ही घर में देवता और दानव जैसे लोग जन्म लेने लगे।

उदाहरण:

पांडव – धर्मराज युधिष्ठिर, अर्जुन आदि, जो धर्म, नीति और ज्ञान के मार्ग पर चले।

कौरव – दुर्योधन, दु:शासन आदि, जो अधर्म, अहंकार और लोभ के प्रतीक थे।

यह युग दिखाता है कि अब धर्म-अधर्म की लड़ाई परिवार के अंदर शुरू हो चुकी थी।

महाभारत युद्ध इस बात का प्रमाण है कि अधर्म कितना शक्तिशाली हो चुका था कि उसे हटाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण को स्वयं युद्ध की नीति बनानी पड़ी।

निष्कर्ष:

इस युग में धर्म और अधर्म की पहचान कठिन होने लगी थी, क्योंकि वे एक ही वंश में दिखाई दे रहे थे। अब केवल कर्म से पता चलता था कि कौन धर्मपथ पर है।

4. कलियुग: जब देवता और दानव एक ही शरीर में रहने लगे

विशेषता:

कलियुग को अंधकार का युग कहा गया है। यह युग लोभ, स्वार्थ, अहंकार, वासना और अधर्म से भरा है। धर्म केवल एक चौथाई (¼) बचा है।

देवता और दानव अब हमारे भीतर:

आज का मनुष्य दोहरी मानसिकता से ग्रसित है। अब देवता और दानव किसी दूसरे लोक या घर में नहीं हैं, बल्कि मनुष्य के भीतर ही दोनों रहते हैं।

एक ही व्यक्ति कभी दान-पुण्य करता है, कभी झूठ बोलता है।

कभी अहंकार दिखाता है, तो कभी विनम्र भी बन जाता है।

कभी भगवान के मंदिर में जाता है, तो कभी भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाता है।

उदाहरण:

एक शिक्षक जो बच्चों को पढ़ाता है, वही परीक्षा में नकल करवाता है।

एक डॉक्टर मरीज की सेवा करता है, लेकिन लालच में गलत दवा भी लिख देता है।

एक नेता जनता के लिए काम करता है, लेकिन भीतर से भ्रष्ट रहता है।

यह युग मानव अंतःकरण के संघर्ष का युग है – जहां अहंकार और विवेक, लोभ और संयम, क्रोध और क्षमा – सब एक ही शरीर में पलते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से:

देवता हमारे भीतर की सात्त्विक प्रवृत्ति हैं – जैसे करुणा, सेवा, त्याग, सत्य, भक्ति।

दानव हमारे भीतर की तामसिक और राजसिक प्रवृत्ति हैं – जैसे अहंकार, वासना, क्रोध, लोभ, मोह।

अब लड़ाई बाहर नहीं, मन के भीतर है।

निष्कर्ष:

चारों युगों में देवता और दानव के बीच की दूरी धीरे-धीरे घटती गई –

सतयुग में वे अलग लोकों में थे,

त्रेतायुग में एक ही धरती पर,

द्वापरयुग में एक ही परिवार में,

और अब कलियुग में एक ही शरीर में।

अब सवाल यह नहीं कि बाहर कौन अच्छा है, कौन बुरा, बल्कि यह है कि हम अपने अंदर किसे मजबूत करते हैं – देवत्व को या दानवत्व को?

इस युग की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि मनुष्य को अपने भीतर के दानव से लड़कर देवता को जगाना है।

क्योंकि कलियुग में, युद्ध बाहर नहीं – अंदर है।

और वही व्यक्ति सच्चा विजेता है – जो

 अपने भीतर के दानव को जीत लेता है।

लेखक: राकेश कुमार

(संघर्षशील जीवन के प्रेरणास्रोत, समाज के प्रति समर्पित, आध्यात्मिक दृष्टिकोण के लेखक)

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